विचारहीन, विचारशील और निर्विचार तीन अवस्थाएं मनुष्य के मन की हो सकती है – विचारहीन, विचारशील और निर्विचार ।
विचारहीन – इस अवस्थाएं कोई विचार करने की सामर्थ्य नहीं होती है और जो कुछ भी कर्म करना है वह बिना किसी विचार के या आत्म मंथन के ही करना है । इस अवस्था में इंसान या जानवर में कोई विशेष फर्क नहीं होता है। इस अवस्था में निर्णय करना बहुत आसान है कुछ सोचना है नहीं है सही क्या है गलत क्या है।
विचारशील – इस अवस्था में विचारों का आवागमन में में चलता रहता है बिना किसी विराम के । एक आम मनुष्य का मन इसी तरह का होता है और निरंतर विचारों से घिरा रहता है । उस कुछ भी समझ नहीं आ पाता क्या में ये ठीक कर रहा हूं या गलत । क्या मुझे ये करना चाहिए या नहीं ।
निर्विचार – इस अवस्था में सब कुछ सोचा जा चुका होता है । कोई शंका मन में नहीं होती है और मान लिया गया है जो कुछ होता है अच्छे के लिए होता है । या जो लिखा है वो होके रहेगा । इस अवस्था में भी निर्णय लेने में कोई समय खराब नहीं करना पड़ता है ।
तीनों अवस्थाएं मनुष्य महसूस भी करता है और किसी ना किसी वक़्त इन अवस्थाओं से गुजरता भी है। खुश रहने के लिए पहली और तीसरी अवस्था की आवश्यकता है। विचारहीन होकर इंसान खुश रह सकता है या फिर निर्विचार होकर इंसान खुश रह सकता है। विचारहीन अवस्था को जानवर की या राक्षस की अवस्था से जोड़कर देखा जा सकता है जिसमें उनको मतलब नहीं है कि मेरे लिए निर्णय से क्या अच्छा या बुरा होने की संभावना है ।निर्विचार होकर मनुष्य अपने ऊपर किसी करम को हावी नहीं होने देता है और इस अवस्था को देवता या भगवान की अवस्था से जोड़कर देखा जा सकता है।
बीच की जो अवस्था है वह बड़ी पीड़ा देने वाली है और एक आम मनुष्य इसी अवस्था में अपना सबसे ज्यादा वक़्त बिताता है । कई बार मनुष्य एक पेंडुलम की तरह घूमता रहता है जिसमें एक तरफ विचारहीनता की अवस्था होती है और दूसरी तरफ निर्विचार की। एक ही दिन में कई बार इंसान जानवर या राक्षस हो जाता है और कई बार देवता या भगवान हो जाता है या होने की संभावना तलाशने लगता है। यहां सबसे बड़ी समस्या या है कि उसे अगर खुश रहना है तो दोनों में से एक को चुनना जरूरी है वो है विचार हीनता की अवस्था या निर्विचार की अवस्था। अब होता ये है कि मन जो है वो एक हार्ड डिस्क की तरह है और उसमें आज तक की जो घटनाएं हैं वो सुरक्षित जमा रहती हैं । हालांकि कभी उसे लगता है जानवर बन जाऊं और कभी लगता है देवता बन जाऊं । यहां पर डार्विन का विकास का सिद्धांत आड़े आता है जिसके हिसाब से इंसान पहले जानवर था । क्रम विकास के हिसाब से जानवर से इंसान बना है ये इंसान को मालूम है लेकिन इंसान देवता भी बन सकता है (निर्विचार होकर) ये मन नहीं मान पाता है ।
इसके अलावा यहां पर में एक बात का और ज़िक्र करना चाहूंगा कि शराब इतनी मशहूर क्यों है । शराब इंसान को विचारशील से विचारहीन की और ले जाने का सस्ता और सुंदर उपाय बनकर आती है। इंसान पीकर एकदम खुश हो जाता है क्योंकि खुश रहने की ये कंडीशन है कि विचारहीन या निर्विचार।
एक उदाहरण यहां में महाभारत के युद्ध के समय का लेना चाहूंगा । दुर्योधन युद्ध के लिए ललकार रहा है वो विचारहीन है और किसी भी परिणाम की उस कोई फिक्र नहीं है। कृष्ण युद्ध के लिए तैयार हैं निर्विचार है सब कुछ सोच चुके हैं । युद्ध टाला नहीं जा सकता है और सारा परिणाम वो अपने सामने देख चुके हैं महसूस कर चुके हैं। सबसे खराब हालत अर्जुन की है क्यूंकि वह विचारशील है और एक आम मनुष्य का प्रतीक है। चिंतित है क्या होगा । जीतने में भी मजा नहीं और हारने में संतुष्टि नहीं है। कृष्ण उसको समझा रहे हैं और निर्विचार बनाने की कोशिश कर रहे हैं ।और अंत में अर्जुन को प्रेरित करने के लिए अपना रौद्र रूप दिखा रहे हैं ।
अगर हमें खुश रहना है तो सबसे अच्छा तरीका है निर्विचार होने का या फिर कर्म करने का और फल को भगवान के ऊपर छोड़ देने का । फल में आसक्ति नहीं रखकर अनासक्त होकर कर्म करने की जरूरत है । यही गीता के ज्ञान का सार है जो भगवान कृष्ण ने अर्जुन को दिया और उसको विचारशील से निर्विचार तक लाकर प्रसन्नता से धर्म युद्ध करने के लिए तैयार किया।